Bihar’s Lenin Babu Jagdev Kushwaha – Biography of Unsung Hero
Babu Jagdev Prasad Kushwaha Biography In Hindi | बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा का जीवन परिचय
बहुजन क्रांति में हमारे बहुत से महापुरुषों ने अपना अपना योगदान दिया, उसी बहुजन क्रांति के इतिहास में एक नाम ऐसा भी है जिसने ब्राम्हणवाद की जड़ें हिलाकर रख दी थी, मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धांतों से ओतप्रोत इस महापुरुष का नाम हमारे बहुजन साहित्य में इस कदर घुल मिल गया है, कि उनके बिना बहुजन क्रांति का पन्ना अधूरा सा लगता है। शोषित वर्गों के लड़ाई में उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग दिया। जी हाँ हम बात कर रहे हैं बिहार के लेनिन कहे जाने वाले बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा के बारे में। जब वह गरजे तो इंदिरा सरकार के खिलाफ खूब बोले और लोगों ने उन्हें मन से सुना।
वह बिहार विधान सभा के सदस्य थे, 1968 में सतीश प्रसाद सिंह कैबिनेट में उन्होंने चार दिनों के लिए बिहार के उपमुख्यमंत्री का भी कार्यभार संभाला था। एक समाजवादी होने के साथ साथ वह अर्जक संस्कृति के प्रशंसक भी थे, वह शोषित दल (बाद में शोषित समाज दल) के संस्थापक थे और भारत की जाति व्यवस्था के कट्टर विरोधी और आलोचक थे, आइए जानते हैं शोषित वर्ग के लोगों मे एक नई क्रांति पैदा करने वाले बाबा जगदेव प्रसाद कुशवाहा के जीवन के बारे में:-
जगदेव प्रसाद का जन्म
जगदेव प्रसाद का जन्म बिहार के अरवल जिले के कुर्था ब्लॉक के कुराहरी गांव में 2 फरवरी 1922 को हुआ था। उनके पिता का नाम प्रयाग नारायण कुशवाहा था और माता का नाम रासकली देवी था। जगदेव बाबू का जीवन गरीब परिवार में गुजरा और उन्होंने अपने जीवन में कई संघर्षों का सामना किया।
बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा के सामाजिक कार्य
उन दिनों, बिहार में ‘पचकठिया प्रथा‘ का चलन था, जिसके अंतर्गत जमींदार अपने हाथी को हर किसान के खेत में पांच कट्ठा धान चरने के लिए जबरन भेजते थे। एक दिन, स्थानीय जमींदार का हाथी जगदेव प्रसाद के खेत में धान चरने आया, तो उन्होंने अपने साथियों के साथ हाथी और महावत पर हमला किया, उन्होंने हमला बोल दिया। महावत को हाथी के साथ वापस लौटना पड़ा। इस तरह उन्होंने इस अत्याचारपूर्ण प्रथा के खिलाफ अपना पहला विद्रोह दर्ज कराया।
1950 में पटना विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद, जगदेव बाबू ने सचिवालय में कुछ समय काम किया, फिर उन्होंने गया के एक हाईस्कूल में शिक्षा देना शुरू किया।
उन्हीं दिनों, उन्होंने ‘डोला प्रथा‘ के खिलाफ लोगों को उत्साहित किया, जिसमें नवविवाहिता दलित दुल्हनों को अपनी पहली रात को स्थानीय जमींदार के साथ बिताने की अपेक्षा की जाती थी। उनके प्रयासों ने लोगों को इस प्रथा को खत्म करने के लिए उत्साहित किया, जो पिछड़ी और दलित समुदायों के खिलाफ भेदभाव करती थी।
बाबू जगदेव प्रसाद की शिक्षा
अपने घर के पास कुर्था प्राथमिक पाठशाला से उन्होंने मिडिल स्कूल की शिक्षा प्राप्त की और आगे की पढ़ाई के लिए वह जहानाबाद गए, जहां से वर्ष 1946 में मेट्रिक की परीक्षा में सफल हुए। शादी के बाद वे परिवार को छोड़कर महज 11 रुपये लेकर पटना चले गए। उन्होंने पटना के गांधी मैदान में बैठकर अपने जीवन के एक माली से मिलकर बी एम कॉलेज पटना में पढ़ाई करने का मौका पाया।
दोनों में हुई बातचीत के दौरान, माली ने उनकी आर्थिक समस्याओं को सुना और उनका दाखिला बीएम कॉलेज पटना में करवा दिया और आधी फीस भी माफ कर दी। इसके परिणामस्वरूप, उन्होंने वर्ष 1948 में पटना विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा पास की। उन्होंने वर्ष 1950 में पटना विश्वविद्यालय से इकोनॉमिक्स (अर्थशास्त्र) में परास्नातक (पोस्ट ग्रेजुएट) डिग्री हासिल की। जगदेव बाबू ने पटना में पढ़ाई के दौरान वादा किया कि वे अपने शिक्षा के लिए जीवन की कठिनाइयों का सामना करते रहेंगे और संघर्ष करते रहेंगे।
ऊंची जातियों ने हमारे पूर्वजों से हमारे साथ अन्याय किया है। मैं राजनीतिक वर्ग संघर्ष के लिए पैदा नहीं हुआ हूं। मैं तमाम दरिद्र, महकूम, और वंचितों को एकत्र करके उनकी उन्नति के लिए नीतियाँ बनाऊंगा और उन्हें स्वयं ही अपने धन और सामाजिक स्थान को सुधारने का मौका दूंगा।- बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा
बाबू जगदेव प्रसाद का बचपन
जगदेव बाबू ने बचपन से ही साहसी और विद्रोही स्वभाव दिखाया। एक बार जब वे नए और बेहतर कपड़े पहनकर स्कूल गए, तो कुछ सवर्ण छात्र उन्हें छेड़ने लगे और उन्हें आलोचना की, जिससे उन्हें बहुत गुस्सा आया। गुस्से में आकर, उन्होंने उन छात्रों की पिटाई कर दी और उनकी आँखों में धूल फेंक दी, जिसके कारण उनके पिता को जुर्माना देना पड़ा और माफी भी मांगनी पड़ी।
निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा होने के कारण बाबू जगदेव कुशवाहा की प्रवृत्ति शुरू से ही संघर्षशील और जुझारू रही , एक और घटना बचपन में घटी। एक बार उनके स्कूल के शिक्षक ने बिना किसी गलती के उन्हें थप्पड़ मारा और उन्हें गलत बताया। इससे वे बहुत दुखी हुए। कुछ दिनों बाद, वही शिक्षक कक्षा में खर्राटे भरने लगे, तब जगदेव बाबू ने उनके गाल पर एक मजबूत चांटा मारा, जिसके बाद उन्होंने स्कूल के प्रधानाचार्य से शिकायत की।
जगदेव बाबू के अध्यापक और नजदीकी सच्चिदानंद श्याम के अनुसार, वे लोक सेवा आयोग की डिप्टी कलेक्टर की परीक्षा देने गए थे, जिसे पास किया और इंटरव्यू में भी भाग लिया था। लेकिन इंटरव्यू में उन्हें अपमानित किया गया और कहा गया कि अधिकारी बनकर क्या करोगे? उन्होंने इस पर इंटरव्यू का बहिष्कार कर दिया, और इसके परिणामस्वरूप, एक अन्य प्रतियोगी भोला प्रसाद सिंह ने भी इंटरव्यू का बहिष्कार किया था।
वर्ष 1946 में, जब जगदेव बाबू घर से दूर जहानाबाद में पढ़ाई कर रहे थे, तब उनके पिता जी बीमार हो गए और उनकी माँ ने सभी देवी-देवताओं से उनके स्वस्थ होने के लिए प्रार्थना की, लेकिन वे फिर भी ठीक नहीं हुए और अंत में उनकी मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु और माँ की बेबसी ने बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा को बहुत दुखी किया, और इससे ही उनके मन में हिन्दू धर्म के प्रति विरोध और आक्रोश की भावना पैदा हुई।
लोग कहते हैं कि उन्होंने अपने घर की सभी देवी-देवताओं की मूर्तियों और तस्वीरों को उठाकर पिता की अर्थी पर रख दिया और उन्हें भी पिता की चिता के साथ जला दिया। उन्होंने अपनी पिता की मृत्यु के बाद कोई भी श्राद्ध या कर्मकांड नहीं किया, केवल एक शोक सभा और सामूहिक भोज का आयोजन किया।
बाबू जगदेव प्रसाद का गृहस्थ जीवन
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, जगदेव बाबू ने लोक सेवा आयोग के अपमानजनक व्यवहार से परेशान होकर सचिवालय में नौकरी शुरू की और परिवार को आर्थिक सहायता देने लगे। लेकिन उन्हें अभी और परीक्षाएं देनी थीं। अधिकारियों के जातिवादी और सामंतवादी आचरण से परेशान होकर, उन्होंने तीन महीने बाद नौकरी छोड़ दी।
इसके बाद, उन्होंने गया में एक हाई स्कूल की स्थापना की और उसके प्रधानाध्यापक के रूप में कार्य करने लगे, और इसी दौरान वे राम मनोहर लोहिया के संपर्क में आए और समाजवादी आंदोलन में शामिल हुए। उन्होंने बिहार के कई भागों की यात्रा की और समाज के दुख-दर्द को समझने की कोशिश की।
धीरे -धीरे उनका मन स्कूल से उबर कर राजनीति में कूद पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप, उनके छोटे भाई वीरेंद्र कुशवाहा के अनुसार, उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई, और उन्हें भी पढ़ाई छोड़कर जहानाबाद में स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करनी पड़ी। लेकिन वीरेंद्र कभी भी जगदेव बाबू को घर की गरीबी और परेशानी के बारे में कुछ नहीं बताते थे।
एक घटना की चर्चा करते समय, वीरेंद्र कहते हैं कि “एक दिन, वो जब कॉलेज से वापस घर आए, तो सीधे अपनी भाभी से मिलने चले गए और देखा कि भाभी एक पुरानी साड़ी पहन रही थी, और उसमें कई जगह पैबंद थे। मैंने अचानक देख कर भाभी को असहज महसूस करते हुए देखा, और वह कहने लगी, ‘अरे, वैसे ही पहन लिया था मेरे पास कई और साड़ियाँ हैं।‘
लेकिन जब मैंने और साड़ियाँ दिखाने की प्रार्थना की, तो कोई साड़ी नहीं मिली। मेरी पत्नी से पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके पास एक और साड़ी है जो ठीक-ठाक है, जिसका प्रयोग वे कभी-कभी बाहर जाने के लिए करती हैं। मुझसे पूछा क्यों नहीं बताया तो मेरी पत्नी ने कहा कि दीदी ने हमें घर की परेशानियों को बताने से मना किया था।
इस घटना के बाद, मैंने पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने का निर्णय लिया” (द फ्रीडम, 2018)। घर परिवार की तकलीफों को नजरअंदाज करते हुए, जगदेव बाबू सामाजिक और राजनीतिक क्रियाओं में रुचि रखने लगे। इसके परिणामस्वरूप, कभी-कभी जब घर आते, तो छोटे भाई से कुछ आर्थिक सहायता भी लेते थे।
बाबू जगदेव प्रसाद का पत्रकारिता का सफर
अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री पूरी करने के बाद, उन्होंने पत्रकारिता की दिशा में कदम बढ़ाया और पटना सहित कई अन्य शहरों के पत्र-पत्रिकाओं में क्रांतिकारी लेख और रचनाएँ लिखने लगे। सामाजिक न्याय और बहुजन हितों के लिए उनके लेखों ने उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा, लेकिन इस साहसी पत्रकार को अपनी बात कहने से कोई रोक नहीं सका। 1952 में, उन्होंने “जनता” के नाम से सोशलिस्ट पार्टी का मुखपत्र संपादित करना शुरू किया और उसे जन जन तक पहुंचाने का काम किया।
उन्होंने शोषित पार्टी से जुड़कर पार्टी के मुखपत्र ‘जनता‘ का संपादन किया और पत्रकारिता में अपने महत्वपूर्ण योगदान किया। 1955 में हैदराबाद जाकर वह ‘सीटीजन‘ और ‘उदय‘ जैसे प्रमुख पत्रिकाओं के संपादन का काम किया, जिससे उनके क्रांतिकारी और ओजस्वी विचारों का समर्थन मिला और उनकी लिखावट से लाखों लोगों को प्रेरित किया। इसके बावजूद, उन्होंने अपने सिद्धांतों पर कभी समझौता नहीं किया।
1955 में हैदराबाद से बाहर निकले अंग्रेजी साप्ताहिक ‘सिटीज़न‘ और हिंदी पत्रिका ‘उदय‘ के संपादन से जुड़े। सामाजिक न्याय और बहुजन भागीदारी पर उन्होंने विस्तार से लिखा। धमकियों के बावजूद उन्होंने पत्रकारिता में सच्चाई के लिए संघर्ष किया और समाजिक न्याय और शोषितों के हक के लिए आवाज उठाई। बाद में दबाव के बावजूद पत्रिकाओं के संपादक पद से इस्तीफा देकर सामाजिक कार्यों में जुटे।
सामाजिक लड़ाई का सफर में, हैदराबाद से वापस आकर वे समाजवादी आंदोलन का हिस्सा बने और बिहार के सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया। उनकी बातों में जादू था, जो लोगों को प्रेरित करता था। उन्होंने आवाज उठाई और जोश और ऊर्जा भर दी।
जगदेव बाबू ने अर्जक संघ में भाग लेकर ब्राह्मणवाद का खत्म करने के लिए समाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की बजाय मानववादी उपायों का समर्थन किया। उन्होंने आचार, विचार, व्यवहार और संस्कार को बदलने के लिए प्रेरित किया।
उन्हें बिहार के लेनिन उपाधि ‘हजारीबाग जिला‘ में पेटरवार (तेनुघाट) के महतो सभा में दी गई।
जगदेव प्रसाद का राजनीतिक सफर
पटना विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक की डिग्री प्राप्त की। चंद्रदेव प्रसाद वर्मा से उनका परिचय हुआ और वह उन्हें विभिन्न विचारकों के ग्रंथ पढ़ने और समझने के लिए प्रोत्साहित किया। जगदेव जी ने सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया और राजनीति में अपनी रुचि प्राप्त की।
राजनैतिक जीवन और राजनैतिक निर्णय जगदेव बाबू ने राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर सोशलिस्ट पार्टी को मजबूत किया और नया संगठन बनाया। उन्होंने लाखों लोगों को सामाजिक विधारधारा से जोड़ा और सामाजिक आंदोलन को बिहार के घर-घर तक पहुंचाया। 1957 में विक्रमगंज लोकसभा से उन्हें चुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
1962 में फिर से कुर्था से विधानसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन फिर भी हार गए। प्रचार के लिए उन्होंने साइकिल और टमटम का सहारा लिया। 1966 में सोशलिस्ट पार्टी का विलय हुआ और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ। उन्होंने इस नए दल के उम्मीदवार के रूप में फिर से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।
1967 में बिहार में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी और महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने। उन्होंने सिंचाई, बिजली और योजना मंत्री के रूप में काम किया।
महामाया प्रसाद की सरकार गिरी और नई सरकार बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल के नेतृत्व में बनी। उन्हें सिंचाई और बिजली विभाग का मंत्री बनाया गया। इसके बाद, 1969 में हुए मध्यावधि चुनाव में उनकी पार्टी को 6 सीटें मिली, लेकिन किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस और शोषित दल ने मिलकर सरकार बनाई, लेकिन यह सरकार कुछ ही महीनों में गिर गई।
इसके बाद बिहार में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, जिसमें उन्हें सिंचाई, बिजली और योजना मंत्री के रूप में जगह मिली। उन्होंने 2 अप्रैल 1970 को बिहार विधानसभा में ऐतिहासिक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने शोषितों-दलितों के लिए नब्बे फ़ीसदी हिस्सेदारी की मांग की। उन्होंने कहा, “सरकारी, अर्द्ध सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कम से कम 90 सैकड़ा जगह शोषितों के लिए सुरक्षित कर दी जाएं।”
उन्होंने समाजवाद और कम्युनिज्म के विचारों को अपनी राजनीतिक दल ‘शोषित दल‘ की नीतियों में शामिल किया और उन्होंने कहा कि शोषित दल की नीतियां वर्ग संघर्ष के प्रति विश्वास को दर्शाती हैं।
1970 में फिर से दारोगा प्रसाद मुख्यमंत्री बने और जगदेव बाबू को सिंचाई, बिजली और योजना मंत्री बनाया गया। इस सरकार के बाद, उन्होंने विधानसभा से चुनाव लड़ा लेकिन हार गए।
25 अगस्त 1967 को ‘शोषित दल‘ के रूप में नई पार्टी की शुरुआत की और उन्होंने यह संदेश दिया कि उनकी लड़ाई लम्बी और कठिन होगी, लेकिन वह एक क्रांतिकारी पार्टी की नींव रख रहे हैं जिसमें प्रत्येक पीढ़ी का योगदान होगा। उन्होंने शोषित समाज की भलाई के लिए हमेशा सोचा और इसे प्राथमिकता दी, जिसके चलते उन्होंने पार्टी और विचारधारा को महत्त्वपूर्ण बनाया। मार्च 1970 में जब उनके पार्टी के समर्थन से दरोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने, तो वह एक महान राजनीतिक दूरदर्शी बन गए।
एक ऐतिहासिक निर्णय द्वारा 7 अगस्त 1972 को जगदेव प्रसाद के शोषित दल और रामस्वरूप वर्मा जी की पार्टी ‘समाज दल‘ का एकीकरण हुआ और ‘शोषित समाज दल‘ नामक नई पार्टी का गठन किया गया। इस पार्टी के अध्यक्ष राम स्वरूप वर्मा जी और महासचिव जगदेव बाबू थे। जगदेव बाबू ने बिहार की राजनीति में एक नए और क्रांतिकारी दौर की शुरुआत की, जिससे सामंतवादी, मनुवादी, और ब्राह्मणवादी लोगों और राजनीतिज्ञों को परेशानी हुई और वे उनके विरोध में आ गए।
छः सूत्री मांग को लेकर राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह जगदेव बाबू ने मई 1974 में 6 सूत्री मांगों के साथ पूरे बिहार में सत्याग्रह आरंभ किया, जिसका उद्देश्य कांग्रेस की तानाशाही सरकार के खिलाफ हो रहे छात्र आंदोलन को जन-आंदोलन में बदलना था। उन्होंने बिहार में सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता को उजागर किया और उनके प्रयासों ने राज्य-व्यापी सत्याग्रह की शुरुआत की।
बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा के नारे जगदेव बाबू ने भारत के गरीबों, किसानों, और मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए नारों का प्रचार किया, जिनमें उनके मरने के बाद भी लोग आजतक विश्वास करते हैं। उनके नारों ने बिहार के राजनीतिक मानसिकता को सशक्त किया और उनकी यात्रा आज भी महत्वपूर्ण है।
‘अगला सावन भादों में.
गोरी कलाई कादों में’
सामाजिक भागीदारी और प्रतिनिधित्व के संदर्भ में-
‘दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’
‘सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है
धन-धरती और राजपाट में, नब्बे भाग हमारा है’
शिक्षा, स्वस्थ्य और राजनीति के महत्त्व के संदर्भ में-
‘पढ़ो-लिखो, भैंस पालो, अखाड़ा खोदो और राजनीति करो.’
राजनीति और अन्य क्षेत्रों में सवर्णों की भागीदारी के संदर्भ में
‘कमाए धोतीवाला और खाये टोपी वाला’
समान शिक्षा व्यवस्था के संदर्भ में-
‘चपरासी हो या राष्ट्रपति की संतान,
सबको शिक्षा एक सामान.
ब्राह्मणवाद के उन्मूलन के संदर्भ में-
‘मानववाद की क्या पहचान
ब्राह्मण भंगी एक सामान’
‘पुनर्जन्म और भाग्यवाद
इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद’
उनका एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध हो गया था, जो कुछ इस तरीके से था – “जिस लड़ाई की बुनियाद आज मैं डाल रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी। क्योंकि मैं एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ, इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं। इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेंगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे। जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी।”
पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेंगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेंगे और तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे।- बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा
बाबू जगदेव प्रसाद की हत्या का षणयंत्र
कुर्था में बाबू जगदेव प्रसादकुशवाहा एक ऐसा नाम था जिन्होंने 60 और 70 के दशक में पूरे बिहार को हिला दिया था। उनका जन्मनाम “बहुजनों पर अल्पजनों का शासन नहीं चलेगा” था, और उनकी हत्या किसी अमानवीय और दुभावनापूर्ण रूप से हुई थी, जिसमें सत्ताधारी सवर्ण राजनीति शामिल थी। आजतक आजाद भारत में किसी भी राजनेता के साथ इतना अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं किया गया है।
राम अयोध्या सिंह विद्यार्थी, जो जगदेव बाबू के साथी थे, कहते हैं कि 3 सितंबर 1974 को बाबू जगदेव प्रसाद कुर्था जा रहे थे तो रास्ते में अपने कार्यकर्ताओं से मिले, जो अरवल में थे। वहीं उनके एक परिचित बाबू ठाकुर सिंह (स्वतंत्रता सेनानी) भी उनसे मिलने आए थे और उन्होंने जगदेव बाबू को आगाह किया, कहते हुए कि “हे जगदेव बाबू! कुर्था मत जाओ, बिहार भर के भूमिहार हमारे साथ हैं, सब कुछ तैयार है, हमने सब को आगाह किया है ।
इस प्रकार, जगदेव बाबू ने अपनी मौत के षड्यंत्र की खबर सुनकर हँसते हुए कहा, “कि ठाकुर बाबू इहाँ जियइ के आइल हइ, सबके तो एक न एक दिन मरीहे लागि हे, इ तो बढ़िया होए के हम जनता के सवाल लेके मरब. कोई बात ना है, हम डेराइत नाही. इ तो बढ़िया बात है ना ठाकुर बाबू कि पहिलका आजादी की लड़ाई में अपने लड़ली, दुसरका आजादी की लड़ाई हम लड़ी थी, हम मराए जाइब तो तिसरका आजादी के लड़ाई फिर हमर लोग लड़िहैं. इ लड़ाई के इतिहास रहत तो आगे की भी लड़ाई जारी रहत.
बढ़िया है कि हमने अलगे अलगे टाइम में मरब आजादी लइके।” उसके बाद, वे ठाकुर सिंह को 25 रुपये दिए और कुर्था के लिए प्रस्थान कर गए। दो दिन परिवार के साथ बिताने के बाद, 5 सितंबर को कुर्था प्रखण्ड में आहूत मीटिंग को संबोधित करने चले गए।
बाबू जगदेव प्रसाद की हत्या
अपनी मौत के षड्यंत्र की खबर से भी न डरने वाले ऐसे क्रांतिकारी कितने दिलेर और समाज के लिए कितने समर्पित रहे होंगे जो अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहे और नियत समय पर अपने लोगों के बीच संबोधित करने पहुंचे।
5 सितम्बर 1974 को जगदेव बाबू हजारों की संख्या में शोषित समाज का नेतृत्व करते हुए अपने दल का काला झंडा लेकर आगे बढ़ने लगे. कुर्था में तैनात डीएसपी ने सत्याग्रहियों को रोका तो जगदेव बाबू ने इसका प्रतिवाद किया और वह विरोधियों के पूर्वनियोजित जाल में फंस गए. सत्याग्रहियों पर पुलिस ने अचानक हमला बोल दिया. जगदेव बाबू चट्टान की तरह जमे रहे और और अपना क्रांतिकारी भाषण जारी रखा, लेकिन निर्दयी पुलिस ने उनके ऊपर गोली चला दी. गोली सीधे उनके गर्दन में जा लगी, वे गिर पड़े.
सत्याग्रहियों ने उनके बचाव की कोशिश की, पर क्रूर पुलिस उन्हें घायल अवस्था में पुलिस स्टेशन ले गई। जगदेव बाबू को जब घसीटते हुए ले जाया जा रहा था, जब एक अनुसूचित जाति की महिला ने उन्हें पानी देने की कोशिश की, तो उसे मार दिया गया, उनकी छाती पर बंदूकों की बटों से बार- बार वार किया गया और पानी मांगने पर उनके मुँह पर पेशाब किया गया।
पुलिस प्रशासन ने उनके मृत शरीर को छुपाने का प्रयास किया, लेकिन भारी जन-दबाव के चलते उनके शव को 6 सितम्बर को पटना में पहुंचाया गया, जहां से उनकी अंतिम यात्रा निकली, जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों से लाखों लोग शामिल हुए।
भारतीय इतिहास में जगदेव बाबू के साथ किसी जनता प्रतिनिधि के साथ इतनी अमानवीय और क्रूर घटना नहीं हुई होगी। शाम के समापन पर जगदेव बाबू ने ‘जय शोषित, जय भारत‘ कहते हुए इस दुनिया को अलविदा कहा। उनकी लाश को गायब करने का प्लान था, इसलिए उनकी लाश को समर्थकों को नहीं सौंपकर जंगल में ले जाया गया था, लेकिन पटना में उनके साथियों द्वारा धरना देने के कारण अगले दिन सुबह उनकी लाश को वापस लाया गया।
आज तक किसी भी नेता के साथ आजाद भारत में इतना अमानवीय कृत्य नहीं किया गया जैसा कि बाबू जगदेव के साथ किया गया। कांग्रेस, ब्राह्मणवाद, और मनुवाद के प्रभाव के खिलाफ संघर्षशील महान क्रांतिकारी जगदेव प्रसाद कुशवाहा, जिन्हें भारत का लेनिन कहा जाता है, की हत्या पुलिस प्रशासन द्वारा कर दी गई।
उसी दिन शाम के पौने आठ बजे के समाचार में बीबीसी रेडियो ने घोषणा की, कि शांतिपूर्ण सत्याग्रह के दौरान कुर्था में बिहार लेनिन जगदेव प्रसाद की पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी। बिहार सहित पूरे देश में उनकी हत्या की खबर फैल गई, लेकिन भारतीय मीडिया ने इसे बिलकुल प्रमुखता नहीं दी।
इस तरह, शोषितों के मसीहा, क्रांतिकारी राजनेता के अकाल मृत्यु से एक बार फिर ब्राह्मणवाद और सामंतवाद की जड़ें मजबूत हुई। जब जब कोई बहुजन नेतृत्व अपने समाज को जगाने निकला है, उसे ब्राह्मणवाद का शिकार बनना पड़ा है। ऐसे महान शहीद को शत शत नमन और अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि।
बिहार के लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद
उस समय, 2 अप्रैल 1970 को, उन्होंने बिहार विधानसभा में ऐतिहासिक भाषण दिया, “मैंने कम्युनिस्ट पार्टी, संसोपा, प्रसोपा के नेताओं के भाषण भी सुने हैं, लेकिन उनके भाषणों से स्पष्ट हो जाता है कि ये पार्टियां काम की नहीं रही हैं।
इनसे कोई ऐतिहासिक परिवर्तन और सामाजिक क्रांति की उम्मीद नहीं की जा सकती। इन पार्टियों में साहस नहीं है कि सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी को स्पष्ट शब्दों में कहें।
मुझे लगता है कि सभी राजनीतिक पार्टियां द्विज नियंत्रित होने के कारण दिशाहीन हो चुकी हैं। मेरी आवाज़ से कम से कम 90 प्रतिशत नौकरियां शोषितों के लिए आरक्षित की जानी चाहिए, सामाजिक न्याय, स्वच्छता और निष्पक्ष प्रशासन के लिए।
बिहार में राजनीति का प्रजातंत्रीकरण की आवश्यकता को महसूस किया और अर्जक संघ के माध्यम से भ्रष्ट ब्राह्मणवाद के खिलाफ सांस्कृतिक परिवर्तन की आवश्यकता को समझाया। उन्होंने आचार, विचार, व्यवहार, और संस्कार को अर्जक विधि से मनाने का समर्थन किया।
वे बिहार की जनता के ‘बिहार के लेनिन‘ के नाम से पुकारे जाने लगे। उनका योगदान बिहार की राजनीतिक स्थिति में महत्वपूर्ण था, और वे एक महान विचारक और क्रांतिकारी थे।
जगदेव बाबू ने सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक क्षेत्र में अपना नेतृत्व दिया। उन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक तरीके से आपत्ति दर्ज की।
उनके विचार और दार्शनिक दृष्टिकोण आज भी महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने 1960-70 के दशक में सामाजिक क्रांति की आवश्यकता को उजागर किया और बहुजन समाज के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।
जगदेव बाबू एक निडर, स्वाभिमानी, और बहुजन हितकारी थे। उन्होंने इस क्रांति में अपने जज्बे को साकार किया, और ब्राह्मणवाद के खिलाफ समर्थन दिया।
दस का शासन नब्बे पर, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा, सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है, धन-धरती और राजपाट में,नब्बे भाग हमारा है| – बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा
Q & A
Q: : बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा का जन्म कब हुआ था?
A: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा का जन्म 15 नवंबर 1933 को हुआ था।
Q: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा ने कौन-कौन सी महत्वपूर्ण पदभावनाएँ की थी?
A: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा ने राजनीति में भूमिका निभाई और उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे। उन्होंने समाजवादी पार्टी में भी अपनी सेवा दी।
Q: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा की प्रमुख व्यक्तिगत जीवन घटनाएँ क्या थीं?
A: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा ने अपनी जीवन में सामाजिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे शिक्षा और समाज सुधार के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे।
Q: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा के कार्य और सामाजिक उपलब्धियों पर विचार करें।
A: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा ने समाजवादी विचारधारा पर आधारित राजनीति में अपना योगदान दिया और समाजिक समृद्धि के लिए काम किया। उनका समाजिक और राजनीतिक कार्य उत्तर प्रदेश में महत्वपूर्ण है।
Q: कुशवाहा जी के विचारों और कार्यकाल पर और अधिक जानकारी चाहिए तो कहां से प्राप्त कर सकते हैं?
A: कुशवाहा जी के विचारों और कार्यकाल के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप यहां जा सकते हैं: Babu Jagdev Kushwaha: Unsung Hero of Bahujan Resistance
Q: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा की मृत्यु कब हुई और किस स्थान पर?
A: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा की मृत्यु 5 सितम्बर 1974 को कुर्था में हुई।
Q: कुशवाहा जी के समाजिक और राजनीतिक कार्यकाल के प्रमुख पत्रकारिता स्थल कौन-कौन से हैं?
A: कुशवाहा जी के समाजिक और राजनीतिक कार्यकाल के प्रमुख पत्रकारिता स्थल पटना, हैदराबाद आदि हैं।
Q: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा के कार्यकाल में उनके प्रमुख समर्थक और विरोधी कौन-कौन से थे?
A: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा के कार्यकाल में उनके प्रमुख समर्थक समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता और उनके विरोधी अन्य राजनीतिक दल के सदस्य थे।
Q: कुशवाहा जी की राजनीति में किस प्रकार की विशेषता थी?
A: कुशवाहा जी की राजनीति में समाजवादी विचारधारा और जनशक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे जनहित के लिए काम करते थे।
Q: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा की यादगार कार्यक्षेत्र कौन-कौन से हैं?
A: बाबू जगदेव सिंह कुशवाहा की यादगार कार्यक्षेत्र राजनीति, समाज सुधार, और शिक्षा हैं।
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