Who Was Dinabhana Valmiki? Biography in Hindi
जब जब बहुजन समाज पर अत्याचार बढ़ता है बहुजन समाज में आंदोलनों की बाढ़ सी आ जाती है।
जब भी समाज में जागरूकता की लौ धीमी पड़ने लगती है, समाज में से कुछ लोग आगे आकर मसीहा की तरह समाज को एकजुट करने का काम करते हैं।
उन मसीहा में से कुछ के नाम तो लोगों के दिलों और जुबान पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं वहीं कुछ समय के साथ लोगों की स्मृति में धुंधले हो जाते हैं।
बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के जाने के बाद दलितों की चेतना में कमी आ गई थी,
दो दशकों तक तो ऐसा लग रहा था कि जिस कारवां को बाबासाहब बहुत कष्टों से सहकर आगे ला पाए थे, वह कारवां वापस उसी स्थिति में न पहुँच जाए।
बाबा साहब द्वारा स्थापित पार्टी और संगठन के कई टुकड़ों में बटते हुए ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे बाबासाहब अंबेडकर का सारा संघर्ष कहीं व्यर्थ न हो जाए।
ठीक ऐसे वक्त में कुछ मसीहा आगे निकल कर आए और समाज का नेतृत्व किया, इनमें सर्वप्रथम मान्यवर कांशीराम का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है।
परन्तु कांशीराम के मान्यवर कांशीराम बनने तक के सफर में कई लोगों का योगदान रहा है, जिनमें दो ऐसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जिन्होंने शुरुआत के दिनों में कांशीराम को एक दिशा प्रदान करने में योगदान दिया।
पहले व्यक्ति थे मान्यवर दीनाभाना वाल्मीकि और दूसरे व्यक्ति मान्यवर डी के खापर्डे थे।
दोनों ही व्यक्ति बामसेफ के संस्थापक सदस्यों में से थे।
दोस्तों आज हम जानेंगे मान्यवर दीनाभाना के जीवन के बारे में, जिन्होंने दलित आंदोलन की लौ जलाई और कांशीराम जैसा व्यक्तित्व देकर समाज में बहुत बड़ा योगदान दिया।
मान्यवर दीनाभाना
वैसे तो दीनाभाना जी के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, और उनके जीवन पर बहुत कम किताबें लिखी गई हैं।
फिर भी जो जानकारी उपलब्ध है उसी के आधार पर पेश है उनके बारे में संक्षित जानकारी:-
मान्यवर दीनाभाना का जन्म 28 फरवरी 1928 दिन मंगलवार को राजस्थान राज्य की राजधानी से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बागास गांव में दलित समाज की भंगी कही जाने वाली जाति में हुआ था।
उनका नाम दीनानाथ रखा गया, वह अपने पिता की चौथी संतान थे।
उनके पिताजी का नाम “भाना” था, उनका जन्म ब्रिटिश भारत में हुआ था, उस समय ब्राह्मणवाद अपने चरम पर था।
लोगों को छुआछूत, जातिवाद जैसी बुरी व्यवस्थाओं का सामना करना पड़ता था। उस समय भी दलितों को पढ़ने लिखने के लिए संघर्ष करना पड़ता था।
किसी तरह अगर कोई बच्चा स्कूल में भर्ती हो भी जाता, तो वहाँ भी उसके साथ छुआछूत का व्यवहार किया जाता था।
हालांकि उस समय थोड़ा पढ़ा लिखा होने के बाद दलितों को फौज जैसे विभागों में नौकरी मिल जाती थी।
दीनाभाना के साथ भी छुआछूत उनके अंत समय तक बना रहा, उनका स्कूल में दाखिला बहुत भाग दौड़ और संघर्ष के बाद कराया गया।
पिता का नाम भाना होने के कारण उनका नाम दीनाभाना लिख दिया गया, लेकिन स्कूल में जातिगत भेदभाव और ब्राह्मणी षड़यंत्रों के कारण वह ज्यादा समय तक शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए।
वह अपनी प्राइमरी की शिक्षा भी पूरी नहीं कर पाए, छुआछूत और जातिवाद के जहर से उन्हें मजबूर होकर पढ़ाई छोड़नी पड़ी।
हालांकि शारीरिक रूप से मजबूत होने के कारण वह तैराकी,पहलवानी और दौड़ जिसे क्रियाकलापों में महारत हासिल कर चुके थे।
बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा की जीवनी पढ़नेके लिए यहाँ क्लिक करें: Click Here
किशोरावस्था की घटना
धीरे धीरे दीनाभाना किशोरावस्था की ओर चल पड़े थे, हालांकि उनके साथ छुआछूत और जातिवाद जैसी घटनाएं होती रहती थीं।
पर एक घटना जिसने दीनाभाना की जिंदगी बदल दी, वह लगभग 15 साल के हो चुके थे।
उस समय दीनाभाना के पिता भाना एक जाट के पशुओं को चराने का काम किया करते थे, उस जाट ने एक दिन भाना से पशुओं के चारे के लिए एक हौद बनाने को कहा।
इस पर भाना ने उसके एवज में अतिरिक्त मजदूरी की मांग की,जिसपर जाट राजी हो गया।
परंतु वह मजदूरी के पूरे पैसे न चुका सका इसलिए उस जाट ने भाना को मजदूरी के बदले एक भैंस दे दी।
कई लोग यह भी बताते हैं कि दीनाभाना की जिद पर उनके पिता ने उनके लिए भैंस खरीदी थी.
फिलहाल जो भी हो, उसी गाँव के एक ठाकुर ने एक दिन उस भैस को बंधे हुए देखा, तो उसने नौकर से पता लगाने के लिए कहा।
नौकर ने बताया कि वह भैंस भाना नामक भंगी के घर बंधी हुई है।
इस पर उस ठाकुर ने भाना को बुलावा भेजा, ठाकुर ने भाना से भैंस के बारे में पूछ्ताछ की।
तो भाना ने ठाकुर को पूरी बात बता दी, इस पर ठाकुर ने जाट की भैंस वापस करने का आदेश दिया और ताना मारते हुए कहा कि तुम्हारी इतनी हिम्मत कि सुअर पालने वाले भैंस रखने लगे।
आखिरकार उन्हें डर के कारण भैंस वापस करनी पड़ी।
सन् 1940 में के आसपास दीनाभाना दिल्ली आ गये, जहाँ उन्होंने रोजगार पाने के लिए कठिन संघर्ष किया।
जीवन में बदलाव
सन् 1946 में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में उन्हें बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
वहाँ पर बाबासाहब द्वारा दिए गए भाषणों को प्रत्यक्ष रूप से सुनने का अवसर मिला, उनके भाषण सुन कर दीनाभाना की जिंदगी में बहुत बड़ा बदलाव आया।
उन्होंने बाबासाहब के दिये गए मूल मंत्र, “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो” को आत्मसात कर लिया।
उन्होंने अखबारों को पढ़ना शुरू कर दिया, क्योंकि वह कुछ समय के लिए स्कूल गए थे इसलिए थोड़ा बहुत पढ़ सकते थे।
धीरे धीरे वह रोज़ अखबारों को पढ़ने लगे।
दीनाभाना का पूना के लिए प्रस्थान
सन् 1946 अंत तक दीनाभाना पूना आ गए। उनके पूना जाने के कारण यह भी था कि दिल्ली में रहते हुए उन्होंने सुमन नाम की स्त्री से विवाह कर लिया था।
सुमन की माँ एक ढाबे पर काम किया करती थी, काम के बंद हो जाने की वजह से सुमन की माँ, सुमन को साथ लेकर पुणे अपने रिश्तेदारों के पास आ गई थी।
पुणे में दीनाभाना ने रोजगार के लिए लगभग दो वर्ष तक संघर्ष किया, आखिरकार उन्हें सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ मिलिट्री एक्सप्लोसिव (C.I.M.E) में सन् 1948 को बतौर मजदूर नौकरी मिल गई।
हालांकि उनकी नौकरी की तलाश पूरी हो चुकी थी परंतु सुमन की तलाश वह अभी भी कर रहे थे।
सुमन की माँ को जब पता चला कि दीनाभाना की पुणे में ही सरकारी नौकरी लग गयी है तो वह उनसे मिलने आईं।
उनका एक दूसरे के यहां आना जाना फिर से शुरू हुआ और आखिरकार सुमन और दीनाभाना की दोबारा शादी हो गयी।
दीनाभाना का पारिवारिक जीवन
दीनाभाना की पत्नी का नाम सुमन था। दीनाभाना का पारिवारिक जीवन बड़ा ही व्यस्तता के साथ बीता। नौकरी के समय संस्थान के आला अधिकारियों से जूझते रहे, बामसेफ के गठन के बाद पूरे देश में लोगों को एकजुट करते रहे।
अपने रिटायरमेंट के बाद उन्होंने खुद को सामाजिक कार्यों में व्यस्त रखा जिस कारण रिटायरमेंट के बाद वह कभी घर नहीं जा पाए।
सामाजिक कार्यों में वह इतने व्यस्त रहते थे कि उन्होंने कभी खुद पर भी ध्यान नहीं दिया। नीची जाति के होने के कारण उनका पूरा जीवन जातिवाद और छुआछूत के संघर्ष में ही बीता।
दीनाभाना के चार बच्चे थे, उनके दो बेटी और दो बेटे हुए – उनकी बेटी का नाम मीना कुमारी और सबसे छोटी बेटी का नाम लक्ष्मी था, वहीं बड़े बेटे का नाम विजय कुमार और छोटे बेटे का नाम प्रेमचंद था।
दीनाभाना और विभागीय संघर्ष
साल 1964 तक दीनाभाना चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के संघ के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल चुके थे, वह संघ के अध्यक्ष होने के नाते से कर्मचारियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी अच्छे से निभा रहे थे।
इसी साल एक ऐसी घटना घटी जिसने आने वाले समय के लिए एक चिंगारी का काम किया।
सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ मिलिट्री एक्सप्लोसिव (C.I.M.E) संस्थान के प्रमुख सी रामचंद्रन द्वारा कर्मचारी संघ की एक बैठक आयोजित की गई।
जिसमें विनिमय साध्य विलेख अधिनियम (Negotiable Instruments Act), 1881 के तहत आगामी वर्ष की छुट्टियों का खाका तैयार करना था।
इस बैठक में आगामी वर्ष की 16 छुट्टियां निर्धारित कर दी गईं।
जिनमें हिंदू त्योहारों और उच्चवर्गीय महापुरुषों की जयंतियों की छुट्टियां तो थीं, परंतु बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर, तथागत गौतम बुद्ध और अन्य बहुजन समाज के महापुरुषों की जयंतियों पर छुट्टी नहीं थीं।।
सभी प्रतिनिधियों ने बैठक और छुट्टियों से संबंधित रजिस्टर पर हस्ताक्षर कर दिए, परंतु जब वह रजिस्टर दीनाभाना के सामने आया, तो उन्होंने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया।
इस पर ऊंची जाति के अधिकारियों के सामने नीची जाति के व्यक्ति द्वारा की गई ऐसी हरकत करते देख संस्थान प्रमुख ने इसका कारण पूछा, तो दीनाभाना ने बाबासाहब, गौतमबुद्ध और बहुजन महापुरुषों की जयंती पर भी छुट्टी रखने की बात कही।
इस पर संस्थान प्रमुख ने बाबासाहब के लिए गलत शब्दों का इस्तेमाल कर उन्हें गालियां देना शुरू कर दिया।
यह देख कर दीनाभाना को भी गुस्सा आ गया और उन दोनों में झगड़ा होने लगा, संस्थान प्रमुख ने दीनाभाना को बैठक से बाहर निकालकर अन्य चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को डराकर उनसे रजिस्टर पर हस्ताक्षर ले लिये।
साथ ही दीनाभाना को नौकरी से भी निलंबित कर दिया, परन्तु संस्थान प्रमुख यह नहीं जानते थे कि उनकी यह गलती उन पर बहुत भारी पड़ने वाली थी और आगे चलकर यह एक आंदोलन के लिए चिंगारी का काम करने वाली थी।
दीनाभाना स्वाभिमानी होने के साथ साथ साहसी भी थे, उन्होंने अपने स्वाभिमान तथा महापुरुषों के सम्मान के लिए उच्च अधिकारियों से लड़ने का मन बना लिया।
सबसे पहले वह उसी संस्थान में कार्यरत बाबासाहब के विचारों पर चलने वाले डी के खापर्डे से मिले। डी के खापर्डे सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ मिलिट्री एक्सप्लोसिव (C.I.M.E) में एक अधिकारी के पद पर तैनात थे।
उन्हें दीनाभाना के साथ हुई नाइंसाफी के बारे में पता चल चुका था। उन्होंने दीनाभाना को मदद करने का आश्वासन दिया।
डी के खापर्डे ने दीनाभाना को उसी संस्थान में अधिकारी के पद पर तैनात पंजाब से आए दलित समाज में जन्मे साफ रंग और मजबूत कद काठी के मालिक मान्यवर कांशीराम से मिलवाया।
पहले तो दीनाभा ने उन्हें देखकर समझा कि यह कोई पंजाबी जाट है, परंतु डी के खापर्डे के बताने पर उन्हें पता चला कि वह भी दलित परिवार से ही आते हैं।
दीनाभाना को अपनी नौकरी पाने के लिए संघर्ष करते देख एक दिन कांशीराम ने उनसे उनके संघर्ष को लेकर सवाल किया, इस पर दीनाभाना ने उनसे कहा कि अधिकार मांगने से नहीं मिलते, अधिकार छीनने पड़ते हैं।
हालांकि कांशीराम एक समृद्ध दलित परिवार से आते थे और उन्होंने बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम सुन रखा था, वह अक्सर बाबासाहब का नाम डी के खापर्डे और दीनाभाना के मुँह से भी सुनते रहते थे।
परंतु वह बाबा साहब के विचारों से अनभिज्ञ थे,दीनाभाना के कहने पर एक दिन डी के खापर्डे ने बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की लिखी हुई पुस्तक ‘जाति का विनाश (The Annihilation Of Caste)’ कांशीराम को भेंट स्वरूप दी।
कांशीराम ने इस पुस्तक को पढ़कर बाबासाहब के विचारों को जाना और वह उनके विचारों से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने इस पुस्तक को कई बार पढ़ा।
इस पुस्तक ने कांशीराम की जिंदगी इस तरह से बदली कि उन्होंने सब कुछ त्याग कर अपना पूरा जीवन समाज के हित में लगा दिया।
वह मानते थे कि दीनाभाना ही बाबासाहब के विचारों से मान्यवर कांशीराम को परिचित कराने वाले व्यक्ति थे.
कांशीराम दीनाभाना से इतना अधिक श्रद्धा भाव रखते थे कि उनके संस्थान प्रमुख के खिलाफ़ केस करने के लिए उन्होंने वकील से उनका परिचय कराया।
सिर्फ इतना ही नहीं दीनाभाना के पास आर्थिक तंगी होने के कारण कांशीराम ने वकील की पूरी फीस भी अपनी जेब से भरी, दीनाभाना के उन्हें टोकने पर कांशीराम ने उनसे कहा था कि, ‘मैं अपने प्रेरणा स्रोत के लिए इतना तो कर ही सकता हूँ।‘
गाडगे बाबा की जीवनी पढ़नेके लिए यहाँ क्लिक करें :Click here
दीनाभाना को रक्षा मंत्रालय द्वारा सम्मान प्राप्ति
डी के खापर्डे और कांशीराम ने इस सम्मान और स्वाभिमान की लड़ाई को रक्षा मंत्रालय तक पहुंचाया और वहाँ के अफसरों को इस बात से अवगत कराया।
उस समय के तत्कालीन रक्षा मंत्री माननीय यशवंतराव बलवंतराव चव्हाण द्वारा उच्चस्तरीय जांच के आदेश दिए गए और दोषी सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ मिलिट्री एक्सप्लोसिव (C.I.M.E) के संस्थान प्रमुख के साथ साथ कई अधिकारियों को सजा दी गई।
दीनाभाना को सम्मान के साथ नौकरी पर बहाल किया गया और साथ ही डी के खापर्डे और कांशीराम के खिलाफ़ की गई कार्रवाई को भी निरस्त कर दिया गया।
बामसेफ का गठन
दीनाभाना द्वारा छेड़ी गई सम्मान और स्वाभिमान की लड़ाई को डी के खापर्डे, कांशीराम और दीनाभाना ने न सिर्फ आगे बढ़ाया, बल्कि उन्होंने सन् 1973 में दि ऑल इंडिया बैकवर्ड ऐंड माइनोरिटीज कम्युनिटी एम्प्लॅाइज एसोसिएशन का गठन किया।
बाद में सन 1978 में इस संगठन का नाम बदलकर बैकवर्ड एंड माइनोरिटीज कम्युनिटी एम्प्लॅाइज फ़ेडरेशन बामसेफ (BAMCEF) किया गया, जिसे तीनों ने पूरे देश में फैलाया, जो आगे चलकर बहुजन राजनीति की रीढ़ साबित हुआ।
दीनाभाना की मृत्यु
29 अगस्त 2009 को 81 साल की उम्र में गले के कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई, पूरे देश से आए उनके लाखों अनुयायियों ने उनके अंतिम दर्शन कर भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी।
उनका शव 4 दिन तक अनुयायियों के अंतिम दर्शन हेतु रखा गया, 3 सितंबर 2009 को उनका अंतिम संस्कार किया गया और वह सदा के लिए इस प्रकृति में विलीन हो गए।
उनके अनुयाइयों द्वारा आज भी उन्हें सम्मान और निष्ठा के साथ याद किया जाता है।
FAQ
Dinabhana Valmiki का जन्म कहाँ हुआ था?
Dinabhana Valmiki का जन्म 28 फरवरी 1928 दिन मंगलवार को राजस्थान राज्य की राजधानी से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बागास गांव में दलित समाज की भंगी कही जाने वाली जाति में हुआ था।
Dinabhana Valmiki की पत्नी का क्या नाम था?
दीनाभाना की पत्नी का नाम सुमन था। दीनाभाना का पारिवारिक जीवन बड़ा ही व्यस्तता के साथ बीता।
Dinabhana Valmiki का कांशीराम की ज़िंदगी में क्या योगदान था?
बाबा साहब के विचारों से अनभिज्ञ थे,दीनाभाना के कहने पर एक दिन डी के खापर्डे ने बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की लिखी हुई पुस्तक ‘जाति का विनाश (The Annihilation Of Caste)’ कांशीराम को भेंट स्वरूप दी।
कांशीराम ने इस पुस्तक को पढ़कर बाबासाहब के विचारों को जाना और वह उनके विचारों से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने इस पुस्तक को कई बार पढ़ा।
इस पुस्तक ने कांशीराम की जिंदगी इस तरह से बदली कि उन्होंने सब कुछ त्याग कर अपना पूरा जीवन समाज के हित में लगा दिया।
वह मानते थे कि Dinabhana Valmiki ही बाबासाहब के विचारों से मान्यवर कांशीराम को परिचित कराने वाले व्यक्ति थे.
Dinabhana Valmiki की सम्मान की लड़ाई का क्या परिणाम रहा?
डी के खापर्डे और कांशीराम ने इस सम्मान और स्वाभिमान की लड़ाई को रक्षा मंत्रालय तक पहुंचाया और वहाँ के अफसरों को इस बात से अवगत कराया।
उस समय के तत्कालीन रक्षा मंत्री माननीय यशवंतराव बलवंतराव चव्हाण द्वारा उच्चस्तरीय जांच के आदेश दिए गए और दोषी सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ मिलिट्री एक्सप्लोसिव (C.I.M.E) के संस्थान प्रमुख के साथ साथ कई अधिकारियों को सजा दी गई।
दीनाभाना को सम्मान के साथ नौकरी पर बहाल किया गया और साथ ही डी के खापर्डे और कांशीराम के खिलाफ़ की गई कार्रवाई को भी निरस्त कर दिया गया।
Dinabhana Valmiki का बामसेफ के गठन में क्या योगदान था?
दीनाभाना द्वारा छेड़ी गई सम्मान और स्वाभिमान की लड़ाई को डी के खापर्डे, कांशीराम और दीनाभाना ने न सिर्फ आगे बढ़ाया, बल्कि उन्होंने सन् 1973 में दि ऑल इंडिया बैकवर्ड ऐंड माइनोरिटीज कम्युनिटी एम्प्लॅाइज एसोसिएशन का गठन किया।
बाद में सन 1978 में इस संगठन का नाम बदलकर बैकवर्ड एंड माइनोरिटीज कम्युनिटी एम्प्लॅाइज फ़ेडरेशन बामसेफ (BAMCEF) किया गया, जिसे तीनों ने पूरे देश में फैलाया, जो आगे चलकर बहुजन राजनीति की रीढ़ साबित हुआ।
Dinabhana Valmiki की मृत्यु कब हुई?
29 अगस्त 2009 को 81 साल की उम्र में गले के कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई, पूरे देश से आए उनके लाखों अनुयायियों ने उनके अंतिम दर्शन कर भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी।
उनका शव 4 दिन तक अनुयायियों के अंतिम दर्शन हेतु रखा गया, 3 सितंबर 2009 को उनका अंतिम संस्कार किया गया और वह सदा के लिए इस प्रकृति में विलीन हो गए।
